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किसानों के आंदोलन को खामोश नहीं किया जा सकता : संजय पासवान

sanjay paswan

संसद और सांसदों की तरह सड़क को ख़ामोश और किसानों के आंदोलन को खामोश नहीं किया जा सकता. उक्त बयान माकपा के राज्य सचिवमंडल सदस्य संजय पासवान ने कृषि अध्यादेश के संदर्भ में दिया. उन्होंने कहा कि चुनाव तो किसान और मजदरों के वोट से जीता जाता है, लेकिन चुनाव लड़ा हमेशा अमीरों के पैसों से जाता है. मोदीजी की अगुवाई में भाजपा को इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये अरबों की कॉरपोरेट फंडिंग हुई है इसलिए सरकार पर कृषि क्षेत्र को उनके लिए खोलने का दबाव है. बीते जून माह में कोरोना काल के दौरान आत्मनिर्भर भारत अभियान की कड़ी में केंद्र सरकार ने तीन अध्यादेशों के माध्यम से कृषि क्षेत्र में आमूल चूल बदलाव की नींव रखी. रविवार, 20 सितंबर को इन अध्यादेशों को राज्यसभा में विपक्ष की वोटिंग की मांग को नज़अंदाज़ करते हुए विवादास्पद ढंग से केवल ध्वनि मत से पारित कराया गया. ज़ाहिर है कि केंद्र सरकार ने इन सुधारों को किसान हितैषी बतलाया है. उनका कहना है कि विपक्षी दलों का विरोध निराधार है और वे अपने राजनीतिक फायदे के लिए किसानों को गुमराह कर रहे हैं.

किसान प्रोटेस्ट पंजाब

गौरतलब है की पंजाब और हरियाणा के किसानों ने इन प्रस्तावित बदलावों का सड़क पर उतर कर विरोध शुरू कर दिया है और तो और इन विधेयकों के विरोध में भाजपा के सबसे पुराने साथी अकाली दल की नेता हरसिमरत कौर ने भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा भी दे दिया है. ऐसे में इनका प्रभाव समझना ज़रूरी है.

किसान मंडी

इन क़ानूनों के तहत मंडियों की भूमिका नगण्य कर दी जायेगी. कहा जा रहा है कि मंडियों में व्यापारियों की संख्या कम होने के कारण किसानों को उचित दाम नहीं मिलते. मंडियों में शुल्क आदि किसानों से ही वसूला जा रहा है और कई व्यापारियों ने अपना एक समूह बना लिया है जिसके कारण किसानों के साथ अन्याय होता है. इन सबसे बचने के लिए एपीएमसी से अलग प्राइवेट मंडियां और सीधे किसान से खरीद के उपाय सुझाए गए हैं. एपीएमसी की मंडियों में सुधार की ज़रुरत है इससे कोई इंकार नहीं कर रहा लेकिन किसान को अपनी फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ वहीं मिलता है. मंडियों को ख़त्म करना मतलब न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को समाप्त करना. वैसे भी मंडियों के एकाधिकार के दावे गलत हैं. एनएसएसओ की एक रिपोर्ट के अनुसार सोयाबीन को छोड़ किसी भी फसल की 25% से ज़्यादा बिक्री मंडी में नहीं बल्कि निजी व्यापारियों के द्वारा ही हुई है. यह इसलिए क्योंकि ज़्यादातर छोटे किसान कमज़ोर आर्थिक स्थिति या इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी के कारण स्थानीय व्यापारियों को फसल बेचने पर विवश हो जाते हैं. 2017 में किसानों की आय दुगुनी करने की रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में 6, 676 मंडियां हैं जबकि हमें 3, 500 थोक बाज़ारों और 23, 000 ग्रामीण हाटों की आवश्यकता है. बिहार में 2006 में एपीएमसी क़ानून को ख़त्म कर देने के परिणाम छोटे और सीमान्त किसानों के लिए प्रतिकूल ही रहे हैं.

सरकार द्वारा नियंत्रित मंडियों के अभाव में व्यापारियों द्वारा खुद की मंडियां शुरू हुई जिसमें छोटे किसानों की सुनवाई और मुश्किल थी. लेकिन उससे ज़रूरी बात यह थी की किसी भी निजी कंपनी ने फसल खरीदी और भंडारण की समानांतर व्यवस्था खड़ी नहीं की. एपीएमसी को दिए गए शुल्क से किसानों के लिए सुविधाएं जुटाई जाती थी लेकिन बिहार में यह पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर जर्जर अवस्था में पहुँच गया. मध्य प्रदेश में जहां आईटीसी को मंडी के बाहर खरीदी का मौका मिला वहाँ किसानों को अच्छी कीमतें मिलीं लेकिन यह केवल उन फसलों पर मिली जो आईटीसी की रणनीति में ज़रूरी थी और वो भी सीमित समय तक। बाकी फसलों के उचित दामों के लिए किसान को मंडी की और ही मुड़ना पड़ा. इन विधेयकों का तीसरा सबसे चिंताजनक पहलू यह है की इसमें विवादों को सुलझाने का अधिकार चुने हुए मंडी प्रतिनिधियों से छीन कर एसडीएम और कलेक्टर को दे दिया है. नौकरशाही का झुकाव हमेशा सत्तापक्ष की तरफ होता है और गरीब किसानों को लालफीताशाही में उलझाकर रख देगा जबकि धनाढ्य व्यापारियों के लिए राह आसान कर देगा. हम यह कह सकते हैं कि कृषि क्षेत्र पर कॉरपोरेट घरानों के द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक किया गया है.

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